सूर्य प्रकाश में अल्ट्रावायलेट किरण एवं इन्फ्रारेड अदृश्य किरणें होती है, जो वातावरण को सूक्ष्म जीवाणु रहित बनाती हैं। दिन में आक्सीजन की उपलब्धता अधिक होती है। सूर्य प्रकाश में विटामिन का निर्माण होता है। सूर्य प्रकाश में भोजन के चयापचय प्रक्रिया में वृद्धि होती है। दिवा भोजन से खनिज पदार्थों के संश्लेषण में वृद्धि होती है। सूर्य प्रकाश में रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि सूर्य प्रकाश के पीले रंग में पारा, आसमानी में एल्युमिनियम, हरे में शीशा, लाल में लोहा, नीले में तांबा, नारंगी में सोना बैगनी में चादी का समावेश है। पीले रंग की किरणें तिल्ली, लीवर, फेफड़े एवं पाचन प्रणाली की लिए उपयुक्त मानी जाती है। हरा रंग पीयूष ग्रन्थि को सबसे अधिक प्रभावित करता है, इसलिए वम (उल्टी) को रोकता है एव मानसिक तनावो को दूर करता है और नास पेशियों को सुदृढ बनाता है। आसमानी रंग चयापचय (मेटाबलिज्म) की प्रक्रिया को बढ़ाने में सहायक होता है, यह शरीर की अतिरिक्त गर्मी को कम करता है। घ्राणेन्द्रिय, श्रोतेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय को स्वस्थ बनाए रखने में सहकारी है। यह पैराधयराइड ग्रन्धि को भी प्रभावित करता है। बैगनी रंग सोडियम और पोटैशियम के संतुलन को बनाये रखता है, यह जीवन शक्ति बढ़ाने वाले ल्यूकोसाइट्स नामक रक्त कणों के निमार्ण में सहयोगी है। यह मस्तिष्क की दुर्बलता में टानिक का कार्य करता है और मन का केन्द्रीकरण करता है। अत. शरीर में जिन खनिज तत्वों की कमी से जो रोग उत्पन्न हुआ हो उसे सूर्य किरणों से दूर किया जा सकता है।
अल्ट्रावायलेट और इन्फ्रारेड ये दोनो किरणें सूर्योदय के 48 मिनिट बाद प्रभावशील होती है और सूर्यास्त के 48 मिनिट पूर्व ही पृथ्वी पर प्रायः प्रभावहीन हो जाती हैं। इसी कारण सूर्योदय के 48 मिनिट मश्चात् और सूर्यास्त के 48 मिनिट पूर्व भोजन करना चाहिए। प्राय. देखा जाता है कि जो रात्रि भोजन करते है वे सुबह सूर्योदय होने के एक दो घंटे बाद बिस्तर छोड पाते है। प्रायः शरीर में थकान बनी रहती है, सिर भारी रहता है, दिन में समय पर भूख नहीं लगती, मुह में छाले, कब्जियत और सर दर्द की शिकायत बनी रहती है।
रात्रि में दुस्वप्न, इन्द्रियों मे उत्तेजना अधिक निद्रा, मानसिक तनाव रहता है आखिर ऐसा क्यों है ? इसका कारण यह है कि दिन में शारीरिक श्रम और फेफड़ों का फूलना पर्याप्त होने से आक्सीजन का ग्रहण अधिक होता है, पाचन तंत्र अधिक क्रियाशील रहता है जिससे भोजन का पाचन शीघ्र होकर ग्लूकोज में बदल जाता है। जिसे ऑते सोख लेती है और शरीर में एक ताजगी महसूस होती है जैसे अशक्त (बेहाश) व्यक्ति को ग्लूकोज की बोतल चढ़ाने पर ताजगी होती है। जबकि रात्रि के समय भोजन करके शयन करने पर पर्याप्त श्वासोच्छवास की क्रिया नहीं हो पाती और पाचन क्रिया मंद पड़ जाने से भोजन बहुत समय तक अमाशय में पड़ा रहता है, जो इन्द्रियों में उत्तेजना, गैस, अपच, खट्टी डकार, हाथ पैरो मे दुखाव, सिरदर्द, मूर्छा, शारिरीक बल ने कमी, चेहरा निस्तेज और फेफड़ो में पानी भर जाने की संभावना बढ़ा देता है।
यदि हम रात में भोजन करते हैं और शयन नहीं करते तो इसके दूरगामी परिणाम विपरीत पडते हैं। जैसे पाचन, एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी, दिन मे आलस्य, आँखो मे जलन, कैंसर, हदय रोग, मानसिक असंतुलन और अकाल में वृद्धावस्था जैसे अनेक रोगों में वृद्धि होती है। पुराने समय में लोग दिन मे काम और रात में आराम करते थे। इसलिए मनुष्य एवं प्रकृति में अच्छा तालमेल था परन्तु आधुनिक युग में प्रकृति के साथ तालमेल बिगड़ गया है। परिणाम स्वरूप जिन्दगी रोगमय, तनावयुक्त और बोझिल बन गई है। इनसे मुक्त होने का सीधा सरल उपाय है रात्रि भोजन, डिब्बा बंद भोजन, गुटखा, पान-सुपाड़ी, चाकलेट, शराब, तम्बाखु, स्मेक आदि का त्याग करके संयम और प्रकृति के नियमानुसार आध्यात्मिक जीवन जीना।
जो रात्रि भोजन का त्याग ना कर सके, रात्रि में अमाषय खाली नही रखते और समय समय पर उपवास न करके भूख सहन नहीं करते उनकी इन्जाइम (ओइम) प्रणाली सक्रिय नहीं रह सकती। तथ्य यह है कि भूखा रहने पर सबसे पहले लीवर, पेशी एवं अन्य कोशिकाओं में संचित ग्लाइकोजन टूटकर ग्लूकोज बनता है इस क्रिया को ग्लाइको जीनोलाईसिस कहते हैं। इसके पश्चात संचित वसा टूटकर ग्लूकोज बनता है तथा अंत में प्रोटीन टूटता है इन प्रक्रियाओं को ग्लूकोनिआजिनेसिस कहते है। अत स्वस्थ रहने के लिये भारतीय धर्मशास्त्रो में रात्रि भोजन त्याग व्रत उपवास फलहार आदि का प्रावधान रक्खा गया है।
यदि ऐसा नहीं करते तो शरीर के अंगो पांग त्वचा हड्डी हदय स्नायु, पेनक्रियाज, किडनी, खून, फेफड़े मस्तिष्क और ग्रंथियों पर घातक प्रभाव पड़ता है। आयुर्वेद में हदय को कोमल और नाभि अर्थात पेट को कमलकोश की संज्ञा दी गयी है। कमल से तुलना करने का अर्थ जैसे दिन के सूर्य प्रकाश में कमल खिलता है और रात में बन्द हो जाता है वैसे ही रात के समय हृदय और नानि कमल अपने आप संकुचित हो जाता है और नीद लेते समय संकुचन चरम सीमा पर होता है। इस कारण रात्रि में पाचन का कार्य ठीक ढंग से नही होता है, खट्टी डकारें आदि, आती है, पेट कड़ा हो जाता है. वायु का प्रकोप बढ़ जाता है सिर दर्द, पैर दर्द और शरीर में थकावट महसूस होने लगती है। यही बीमारी के प्रारंभिक लक्षण है।
अमाशय और आतो में आहार का पाचन और अवशोषण सहज अनिच्छापूर्वक होता है इसके लिए आक्सीजन के अवशोषण में कमी हो जाती है अथवा रात दिन भोजन करने से अमाशय और आंतो पर अधिक जोर पड़ता है जिससे उनकी भीतरी पर्तों पर खिषांव और सूजन आ जाती है।
रात्रि भोजन त्याग अथवा उपवास करने से शारीरिक प्रतिरोधक तंत्र शक्तिशाली होता है क्योकि उस तंत्र में कार्य करने वाले रक्त के फेगोसाइटस और लिम्फोसाइटस कणो की क्षमता में अदृभूत वृद्धि होती है। लिम्फोसाइटस आगन्तुक विजातीय कीटाणुओं का प्रतिकार करते है। जो सदा खाते-पीते रहते है। उनके विजातीय तत्यो व जीवाणुओ का जमाव होने से शारीरिक कोशिकाएं वृद्ध हो जाती है। जो वृद्धावस्था की ओर ले जाती है।
उपवास अथवा रात्रि कालीन भोजन त्याग कर भूखा रहने से वृद्धावस्था को कम किया जा सकता है। सांसारिक प्राणियों के जन्म, जरा (बुढ़ापा) और निवृत्तियों ये तीन अनिवार्य अग है, परन्तु समय से पूर्व आना ठीक नहीं। इनके कारणो और रोकथाम में लगे वैज्ञानिको की अनेक अवधारणाए होते हुए भी अत में एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यदि पर्याप्त सौर उर्जा में संतुलित आवश्यक भोजन लिया जाय, वातावरण और दिमाग ठण्डा रक्खा जाय अर्थात मस्तिष्क को उद्वेग, अशान्ति एवं चिन्ता से मुक्त रक्खा जाय तो रोग, वृद्धावस्था और अकाल मृत्यु से बचा जा सकता है।
रात्रि में भोजन करके सोने पर आहार नाल की सामान्य गतिशीलता प्रभावित होती है तथा भोजन अधिक समय तक अमाशय में ही रखा रहता है जिससे न केवल पाचन की क्रिया प्रभावित होती है बल्कि अगले दिन मल त्यागने में भी बिलम्ब होता है जिससे कब्ज तथा अनेक रोग जैसे हार्निया, बवासीर इत्यादि हो सकता है।
रात्रि भोजन या आवश्यकता से अधिक या प्रदूषित भोजन करने पर विजातीय द्रव्यों को शरीर से निष्कासित करने के लिए किडनी को अपनी क्षमता से अधिक कार्य करना पड़ता है और फिर धीरे-धीरे उसकी कार्यक्षमता कम हो जाती है। किड़नी के आलावा त्वचा कुछ हद तक उन चिजातीय तत्यो को पसीने से निष्कासित करती है परन्तु कुछ समय पश्चात चर्म रोग की संभावना बढ़ जाती है।
वर्तमान युग में नित नये रोग बढ़ते जा रहे है. इसका कारण भोजन पान अनियमितता है। मानव को दिन में मात्र दो बार भोजन लेना चाहिए। यह एक दिन में कई बार खाने लगा और रात में भी खाने लगा जिसका समाधान अनेक रोगों को उत्पन्न कर दण्डात्मक रूप से प्रकृति ने निकाला है। इससे बचने का उपाय यही है कि दिन में नियमित भोजन किया जाय और रात्रि भोजन त्याग कर प्रकृति के नियमानुसार जीवन का निर्वाह किया जाय।